बुल्ले शाह: सरहदों से परे, मज़हबों से ऊपर प्रेम का संत

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🌿 बुल्ले शाह: सरहदों से परे, मज़हबों से ऊपर प्रेम का संत


जब धर्म ने दीवारें खड़ी कीं, जब समाज ने जात-पात के नाम पर बंटवारा किया, तब एक आवाज़ आई — बुल्ले शाह की।
एक ऐसी आवाज़ जो कहती है:

"मज़हब ते नाम धरम दी ओढ़ के झूठी चादर
रब मिले ना मस्जिद-मंदिर, रब मिले दिल अंदर..."

बुल्ले शाह केवल पंजाब के ही नहीं, बल्कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे निर्भीक, विद्रोही और प्रेम-प्रवाहित कवि माने जाते हैं।


📜 बुल्ले शाह का परिचय

  • पूरा नाम: सैयद अब्दुल्ला शाह क़ादरी
  • प्रसिद्ध नाम: बुल्ले शाह
  • जन्म: 1680 ई., उच गिलानियां, बहावलपुर (अब पाकिस्तान में)
  • मृत्यु: 1757 ई., कासूर (अब पाकिस्तान)
  • गुरु: इनायत शाह कादरी (सूफी पीर)
  • धर्म: इस्लाम, लेकिन मान्यताएँ – प्रेम, अद्वैत, मानवता पर आधारित

बुल्ले शाह ब्राह्मण, शेख, पंडित, मुल्ला – सभी पर चोट करते थे, लेकिन घृणा नहीं करते थे। उनका रास्ता था – प्रेम और आत्मा की स्वतंत्रता


✍️ रचनाएँ: बग़ावत और भक्ति का संगम

बुल्ले शाह की कविताएँ पंजाबी, सराइकी और हिंदवी में हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में:

  • आत्मा और परमात्मा के मिलन की बात की
  • पाखंड, आडंबर और धार्मिक कठोरता की आलोचना की
  • "इश्क" को ईश्वर का दूसरा नाम कहा

🌸 कुछ प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

"बुल्ला की jaana main kaun..."
(बुल्ला नहीं जानता मैं कौन हूँ — आत्म-स्वरूप की खोज)

"मस्जिद ढा दे, मंदर ढा दे, ढा दे जो कुछ दान्दा
पर दिल किसी का ना ढाइं, रब दिलां विच वसदा"
(मस्जिद-मंदिर तोड़ दो, लेकिन किसी का दिल मत तोड़ो, ईश्वर दिलों में बसता है)


🌈 प्रेम का दर्शन और सूफी विद्रोह

बुल्ले शाह ने "रब" को कहीं बाहर नहीं, बल्कि अपने भीतर खोजा। उनके लिए:

  • ईश्वर = प्रेम
  • इबादत = भीतर झांकना
  • मज़हब = इंसानियत

वे शरीअत (धार्मिक नियम) को नहीं मानते थे, क्योंकि उनके अनुसार प्रेम के मार्ग में कोई शर्त, कोई पाबंदी नहीं हो सकती।


🎶 बुल्ले शाह और संगीत

बुल्ले शाह की कविताएँ आज भी क़व्वाली, सूफी संगीत और लोक गायकी में जीवंत हैं।
उनकी रचनाएँ नुसरत फतेह अली खान, आबिदा परवीन, अदनान सामी, कैलाश खेर आदि ने गाई हैं।

"तेरे इश्क़ नचाया कर के थैया थैया..."
(तेरे प्रेम ने मुझे नचाया, जैसे पागल कर दिया हो…)


🤝 हिंदू-मुस्लिम एकता और मानवता

बुल्ले शाह को किसी भी धर्म की दीवार से परे एक "इंसानवादी" कहा जा सकता है।
वे कहते हैं:

"ना मैं मुसलमान, ना मैं हिंदू
ना मैं मक्का, ना मैं काशी
बुल्ला की जाना मैं कौन?"

उनका यह दृष्टिकोण आज के दौर में और भी प्रासंगिक है जहाँ धर्म के नाम पर बंटवारा हो रहा है।


📚 बुल्ले शाह की विरासत

  • उनकी मजार पाकिस्तान के कासूर में है, जहाँ आज भी हर धर्म के लोग श्रद्धा से आते हैं।
  • वे कबीर, रैदास, मीरा, और खुसरो की परंपरा के वाहक थे।
  • आज बुल्ले शाह एक धर्मनिरपेक्ष और आध्यात्मिक चेतना के प्रतीक हैं।

🔖 निष्कर्ष

"बुल्ले की कलम में न तलवार थी, न धर्म की मोहर
सिर्फ़ प्रेम था, और वो भी ऐसा कि जो दिल को फाड़ दे!"

बुल्ले शाह हमें सिखाते हैं कि धर्म का सार अहिंसा, प्रेम, आत्म-बोध और मनुष्यता है — न कि वाद, विवाद और भेदभाव।

 

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